शुक्रवार, 27 मार्च 2020

संगीत, रेडियो और शफल फंक्शन

संगीत, रेडियो और शफल फंक्शन। रैनडम या बिना सोचे समझे जैसा कि इसे सरल शब्दों में समझ सकते हैं। खाली समय में या काम की व्यस्तता के बीच पसंदीदा गानों को सुनना आम है । संगीत लोगों के व्यवहार को तेजी से प्रभावित करता है । इतनी तेजी से की आप उम्मीद भी नहीं कर सकते हैं। 

सिर्फ सुगम संगीत लोगों को उनकी जेब से उनकी गाढ़ी कमाई निकालने के लिए मजबूर कर देता है। यह एक व्यवस्थित खोज का विषय रहा है कि मल्टी ब्रांड रिटेल स्टोर्स में गाने बजाकर कस्टमर्स के खरीददारी के अनुभव को कैसे बेहतर किया जा सकता है? 

एक धीमा-धीमा बजता हुआ गाना आपको सूकुन देता है और तनाव दूर करता है। जब आप हल्का और अच्छा महसूस करने लगते हैं तो आपको समान खरीदने कि इच्छा होती है।

लेकिन विषय ये नहीं है। यह तो संगीत के हमारे मन पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाती है। लेकिन विषय है जीवन में संगीत और खुद बनाई हुयी प्ले लिस्ट और रेडियो कि रैनडम प्ले लिस्ट में से किस प्ले लिस्ट को सुनना ज्यादा पसंद करते हैं। और यह जरूरत है इसी कारण संगीत को सुनने में रैनडम गानों का बजना हो सके इसके लिए म्यूजिक प्लेयर में शफल फंक्शन दिया जाता हैं। 

इससे जुड़ा एक मसला है। स्पाटीफ़ाई (spotify) जो कि एक म्यूजिक स्ट्रीमिंग एप्प है। इसका उपयोग करने वाले लोगों कि शिकायत थी कि स्पाटीफ़ाई गानों को शफल करने में बयास्ड है। यह ठीक से सांग्स को शफल नही करता हैं। यह बात इतनी बढ़ गयी कि स्पाटीफ़ाई के सॉफ्टवेयर इंजीनियर्स को एप्प के शफल फंक्शन के एल्गॉरिथ्म को बदलना पड़ गया। 

इससे तो यह पता चला कि जीवन में संगीत जरूरी है और संगीत में रैनडम होना जरूरी है । ऐसा नहीं है कि लोगों कि अपनी प्ले लिस्ट नहीं होती है। मगर किसी दूसरे कि प्ले लिस्ट सुनना और रेडियो से गाने सुनना हमेशा खुद कि बनाई प्ले लिस्ट से बेहतर है। यह एक तरह से हमें खुद से अलग कुछ बेहतर कि तलाश कि उम्मीद को पूरा करती है। 

रेडियो सुनते हुये जो अनुभव करते हैं। वह मोबाइल पर डाउनलोड किए हुये सांग्स को सुनने से काफी बेहतर है । लोगों ने शेयर किया है कि जब रेडियो में कभी भी कोई सांग्स बजने लगता है जिससे उनकी पुरानी यादें ताजा हो जाती है । उन्हें अपने दिमाग पे अपने जीवन के यादगार लम्हों को याद करने के लिए ज़ोर नहीं देना पड़ता है जैसे रेडियो पर वह सांग बिना सोचे समझे या रैंडम प्ले हुआ वैसे ही दिमाग में आए जीवन के यादगार लम्हों कि याद एक दम रैंडम है। रेडियो में बजने वाले गाने बज कर चले जाते है उनको लेकर हमारे दिमाग में यह सोच उसे कीमती बनती है कि जो मिल रहा है उसे एंजॉय करे क्योंकि हो सकता है ये गाना फिर न मिले या आसानी से न मिले या ये तो मेरे पास नहीं होगा इसके बाद । 

यह सोच जीवन के लिए एक सीख है कि हमें रेंडम या बयास्ड फ्री चीजें पसंद है। और खुद कि बजाय किसी टॉपिक पर एक्सपर्ट कि राय मानना बेहतर होता है। यह सोच वही है जो आपको खुद कि प्ले लिस्ट के प्रति बोरियत पैदा कर देती हैं । जीवन में चयन कि स्वतन्त्रता अपेक्षित है लेकिन यह चयन को लेकर ऊब पैदा कर देती है। यह हमेशा स्वयं के प्रति लगाव को कम करके दूसरे के पसंद को पसंद करने की ओर धकेलता है।

बुधवार, 9 अक्तूबर 2019


छोटे से यह सवाल पूछने लगते हैं कि बड़े होकर क्या बनना चाहते हो ? और यह सवाल इसलिए नहीं पूछा जाता है कि बच्चे ने बहुत सोच विचार के किसी निष्कर्ष पर पहुँच गया है बल्कि ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि उसके अवचेतन मन में एक उद्देश्य फीड किया जा सके । यह सिखाने का एक तरीका है ।

इस पद्धति को गलत नहीं कहा जा सकता है । जीवन में लक्ष्य होने से आगे बढ्ने में आसानी रहती है । लेकिन बच्चे को जीवन में स्वयं फैसले लेने कि स्वतन्त्रता देनी चाहिए ?

यदि यह स्वतन्त्रता हो कि जीवन में चुनने कि तुम क्या बनना चाहते हो तो जवाब तक कैसे पहुचेंगे ? इसका एक आसान तरीका है ।

एक उक्ति है “आपको यह स्वीकारना पड़ेगा कि आप सब कुछ ठीक नहीं कर सकते है “

सरकारी तंत्र में बहुत कार्य करने के बाद भी जो टीस मन में उठती है कि अभी भी बहुत से लोग ऐसे है जो वंचित है जिनके लिए मैं अपेक्षित कार्य नहीं कर पाया ।

अब इससे यह बात सामने आती है कि आप क्या बनना चाहते है इसका निर्णय इस बात से होता है कि समाज में क्या बदलाव देखना चाहते है ?

बहुत से लोग जिनसे यह पूछा गया कि वे भविष्य में क्या बनना चाहते है ? और वे लोग प्रबुद्ध है तो वे कहते है कि उनके जीवन में अमुक अमुक घटना घटी इसलिए उनके विचार में बदलाव आया और इसलिए वे अमुक पद पर जाना चाहते है ।

इस बात को सपोर्ट करती कई कहानियाँ है जिनसे कई नए पक्ष भी सामने आते हैं ।

एक लड़की बड़े होकर पुलिस अधिकारी बनना चाहती है क्योंकि जब उसके साथ एक छेड़खानी कि घटना हुयी थी तो पुलिस ने सही तरह से कार्य नहीं किया । वह चाहती है कि वह पुलिस अधिकारी बनकर इस व्यवस्था को ठीक करे ।

इसके अतिरिक्त एक व्यक्ति डॉक्टर इसलिए बनना चाहता है क्योंकि उसके बड़े भाई कि मृत्यु इसलिए हो गयी क्योंकि उसके बड़े भाई को सही इलाज सही समय पर नहीं मिला ।

व्यक्ति को जीवन में जो वह बदलाव समाज में देखना चाहता है यदि उसके लिए ही प्रयास करता है तो एक संतुष्टि का अनुभव करता है । यह काम हॉबी के तौर पर भी लोग करते है क्योंकि हमेशा यह संभव नहीं होता जो नौकरी हम करते है और जैसा समाज हम देखना चाहते है वे एक हो ।

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

नियति कितनी बलवान है ?

तुम हाँ ! तुम्ही से कह रहा हूँ ! इधर उधर क्या देखते हो ? तुम जो कभी ये सोच कर कि सफल हो , खुश हो गए । वही तुम कभी ये सोच कर कि असफल हो, दुखी हो गए । तुम्हारे जीवन में तुम्हारी यह स्थिति दयनीय से अधिक कुछ नहीं है । कभी भी बिना जड़ के पेड़ देखा है । बिना जड़ का पेड़ होगा भी तो पल भर में सूख जाएगा । बिना नींव कि इमारत गिर जाएगी । आधारहींन बातों को कोई नहीं सुनता वैसे ही जीवन में उन बातों को क्या महत्व देना जिनके होने न होने पर किसी का वश नहीं था । तुमने जन्म किस जाति में लिया तुम्हारे वश में नहीं था , और न ही तुम्हें माता पिता के चयन का अधिकार दिया गया । शिशु के रूप में जब तुम्हारा जन्म हुआ तो तुम इतने अबोध थे कि अपनी नियति से जुड़े फैसले नहीं कर सकते थे । यदि जन्म के बाद भोजन न कराया जाता तुम्हें तो तुम मर जाते । जन्म लेने के वर्षों तक तुम्हें सही गलत और अपना हित-अहित नहीं पता था । एक सेकेंड भर को रुककर अपनी स्थिति को देखो और सोचो आज जिस संसार में रह रहे हो उसमें जिन बातों और तर्कों को लेकर जी रहे हो उनमे से कितनों का निर्धारण योग्यता के आधार पर होता है । जाति, धर्म , रंग , धन , रूप , नागरिकता किसी को भी चुनने के लिए तुम्हें स्वतन्त्रता नहीं थी । तुम जन्म से परतंत्र प्राणी थे । यदि आज स्वतन्त्रता के लिए सोचते हो तो यह वही स्थिति है जिसमें बिना जड़ के पेड़ सूख जाता है । तुम किससे स्वतंत्र होना चाहते हो ? एक व्यवस्था है जिसमें से सभी को गुजरना पड़ा । 

जब कभी भी ये लगे कि जीवन में तुम स्वतंत्र हो । तुम जीवन के फैसले ले सकते हो तो उन बातों को याद करना कि  किस बारीक व अति भाग्यवाद के बीच से तुम्हारा निर्माण हुआ है । जिस स्थिति में तुम्हें किस किनारे लगा दिया जाता उसका कोई हिसाब लेने वाला नहीं था । एक नवजात शिशु कि पहचान नगण्य होती है । ऐसी भयानक स्थिति से निकलकर तुम्हें यह जीवन मिला है जिसमें यदि आँख , नाक , कान , हाथ , पैर  सलामत है तो मान लो बड़ी मेहरबानी कर दी पालने वाले ने जो वह इतना समय निकाल पाया और सोचा कि तुम सही सलामत रहों । यह आश्चर्य नहीं है कि दुनिया में ऐसे लोग दिखते है जिनके हाथ न हो या एक पैर से विकलांग हो । भगवान का दिया हुआ यह शरीर तुम्हारा घर है । जब कभी भी तुम इन बातों को पढ़कर इनकी तह तक पहुचना तुम पयोगे जीवन में जितना कुछ भी तुम्हें मिला है वो न भी मिल पाता तो कोई अदालत नहीं थी जंहा गुहार लगाकर अपने साथ हुये अन्याय का हिसाब मांग पाते । बल्कि तुम्हारी स्थिति ही न्याय के बाद कि स्थिति है । दुनिया तुम्हारे साथ हुये को तुम्हारे पुराने जीवन के कर्मों के मत्थे मढ़ देती और तुम सोचते रह जाते कौन सा पिछला जन्म ? 

असल में यह व्यवस्था है जिसमें अव्यवस्था भी है जैसे कि हर व्यवस्था में होती है । शुभ के साथ अशुभ भी होते है। बिना सोचे विचारे लोग हाहाकार करते रहते है । सीधी सी बात है जब , जिस दिन जिस वक्त यह समझ जाओ कि जिस स्थिति में उस स्थिति से भी बदतर स्थिति हो सकती थी तो उसी समय से अपनी गति बदल देना । निराशा का कोई स्थान नहीं है । निराशा किसलिए ? तुम्हारे हाथ में जब था ही नहीं कुछ तो तुम निराश होकर भी कुछ नहीं कर सकते । ऐसा भी नहीं है कि आगे तुम्हारी निराशा तुम्हें इस बात का भरोसा देगी कि तुम अपनी नियति चुन पाओगे। ब्रह्मांड में लटकती हुयी पृथ्वी को ध्यान करके इस बात को समझों । जो व्यक्ति इन बातों को समझ कर अपनी गति में सुधार कर लेता है उसी ने वास्तव में जीवन को जी पाया । ज़्यादातर जीव इस जगत में नियति के सहारे उड़ते , गिरते , बढ़ते , घटते है । कोई जन्म से अमीर या गरीब हो जाता है ।  किसी की जाति उसे पंडित घोषित कर देती है । कोई जाति से ही ग्वाला है और कोई जाति से ही सेवक है । नियति ने उन्हें अपने कर्म तक चुनने का अधिकार नहीं दिया । यह कोई आश्चर्य करने वाली बात नही है । समाज ऐसा भी होता है । 

दुनिया में कोई भी नहीं जो यह बात समझ लेने वाले व्यक्ति को जरा भी विचलित कर सके कि नियति कितनी बलवान है ?

बुधवार, 10 जुलाई 2019

लग सकता है !
ये तो फूल सरीखे कोमल है ।
गंधइले , जंगली लोमड़ है ।
बेरंग असमय खिला करते ,
आंखों में खुजली के कारण ये ।
नजदीक अगर गए आप,
छींक छींक के लाल नाक ।
तीखे नुकीली जहरीले पराग ,
बिखरे बिखरे मैले दाग,
कभी नहीं देखा हिलते ,
खिलते जितना खलते उतना ।

सड़े गले दलदल में भी ,
पड़े सड़े कचड़े में भी ,
आसानी से न मिल पाते ,
खिलते हिलते मुरझाते ।
सोते भौरे , कीड़े कीट ,
उड़ते पंक्षी , चमगादड़ ढींठ ।

सोमवार, 20 मई 2019

चूंकि आपका एक वोट अकेले मायने नहीं रखता !

हाल ही में देश के आम चुनाव खत्म हुए है । लगभग आधे से ज्यादा देश की जनता इसमें शामिल हुई । यह दुनिया के किसी भी दूसरे लोकतांत्रिक देश की तुलना में बेहद बड़ा चुनाव था । हालांकि चुनाव आयोग आम चुनाव को लोकतंत्र के त्योहार के रूप में प्रोजेक्ट करता है । यह त्योहार हर पांच साल बाद गर्मी के मौसम में आता है । चूंकि भारत उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है इसलिए अप्रैल - मई का मौसम भीषण गर्मी का होता हैं । इतनी भीषण गर्मी के बीच सैकड़ों की संख्या में विशाल रैलियां, हेलीकाप्टर का शोर, लगातार थका देने वाली यात्रा पूरे अभ्यास को कई गुना कठिन बना देती है । चुनाव के दौरान होने वाली हिंसा, अव्यवस्था और चुनाव संबंधी अन्य अपराध प्रमुख चुनौतियाँ है । लेकिन जब यह सब इतना ही कठिन और दुस्साध्य है तो चुनाव होते ही क्यों है ?
चुनाव इसलिए होते है क्योंकि चुनाव देश की सत्ता की चाभी है । चुनाव यह सुनिश्चित करते हैं कि अगले पांच वर्ष किस प्रकार की नीतियां विभिन्न क्षेत्रों में लागू होंगी और जनता के लिए कौन से मुद्दे जरूरी है ।

देश में चुनाव तीन स्तर पर होते हैं । पहला राष्ट्रीय, दूसरा राज्य और तीसरा स्थानीय निकाय । मुख्यतः सत्ता की शक्ति केंद्र और राज्य के बीच बटती है ।

क्या हर चुनाव एक समान जरूरी होता है ? राष्ट्रीय चुनाव ज्यादा महत्व के होते हैं । राष्ट्रीय चुनाव जिन्हें आम चुनाव या लोकसभा चुनाव कहा जाता है राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों को प्रभावित करते है इसीलिए ये अन्य चुनावों से ज्यादा महत्वपूर्ण है ।

राष्ट्रीय चुनावों के अतिरिक्त राज्य स्तर के चुनाव, स्थानीय स्तर के चुनाव भी होते हैं ।

हर प्रकार का चुनाव जीतने के लिए सर्वाधिक मत प्राप्त करना पड़ता है । सबसे ज्यादा मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार जीत जाता है । किसी भी पार्टी के किसी भी उम्मीदवार की जीत-हार का निर्णय मतदाता के द्वारा डाले गए मत से होता है। 

क्या हर चुनाव में मतदाता की भूमिका एक समान होती है ?  नहीं ! हर स्तर के चुनाव में मतदाता की भूमिका , उसके मत की ताकत एक समान नहीं होती है । मतदाता के मुद्दे भी हर चुनाव में एक समान नहीं होते हैं ।

आखिर व्यक्ति तो वही रहता है तो फिर चुनाव के अनुसार उसके मत का मूल्य क्यों घट जाता है ? ऐसा निर्वाचन क्षेत्र के बढ़ते आकार, जातिगत व धार्मिक लामबंदी के कारण होता है ।

स्थानीय पंचायत चुनाव में ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्र एक गाँव या शहरी निर्वाचन क्षेत्र में एक मुहल्ला होता है । छोटा निर्वाचन क्षेत्र होने के कारण प्रत्येक वोट का मूल्य अधिक होता है । और यह बात ऐसे भी सिद्ध होती है कि स्थानीय चुनावों में जीत या हार का अंतर लगभग 100-200 वोट का होता है । पंचायत स्तर पर कभी-कभी बराबर मत भी मिल जाते हैं । ऐसे में स्थानीय स्तर पर एक-एक मत बहुत कीमती होता है । लेकिन जब कि मतदाता के एक मत का मूल्य अधिक होता है लेकिन मुद्दे अत्यंत सीमित महत्व के होते हैं ।

इसीप्रकार राज्य स्तर पर विधानसभा का निर्वाचन क्षेत्र स्थानीय निर्वाचन क्षेत्र से थोड़ा और बड़ा होता है । एक विधानसभा क्षेत्र में औसतन  लाख से दो लाख वोट होते हैं । दो लाख वोट वाले विधानसभा क्षेत्र में जीत का अंतर आमतौर पर 40 से 50 हजार तक रहता है लेकिन बहुत टाइट मुकाबले में यह अंतर 1000 से 500 वोट तक भी गिर जाता है । इसप्रकार विधानसभा चुनाव में मतदाता के एक मत का मूल्य थोड़ा कम हो जाता है ।

असल में किसी चुनाव में जीते हुए उम्मीदवार और दूसरे नम्बर पर आए उम्मीदवार के बीच के मत अंतर से उस निर्वाचन क्षेत्र में एक मत के मूल्य का आकलन किया जाता है । यदि यह अंतर स्थानीय चुनाव में 1 वोट का है तो एक-एक वोट कीमती है लेकिन यदि यही अंतर लोकसभा चुनाव या विधानसभा चुनाव में 1 लाख वोट या 50 हजार का है तो मतदाता के मत का मूल्य गिर जाता है ।

इसी प्रकार लोकसभा चुनाव में भी होता है । एक लोकसभा क्षेत्र लगभग 10 विधानसभा क्षेत्र से मिलकर बनता है । उसमें लगभग 10 लाख से लेकर 20 लाख तक वोट होते हैं । और जीत का मार्जिन भी 1 लाख से 2 लाख वोट का होता है ।

इसप्रकार के आकलन से तो ऐसा प्रतीत होता है कि मतदाता को पंचायत चुनाव में जरूर वोट करना चाहिए लेकिन विधानसभा और लोकसभा चुनाव में वोट नहीं भी करेगा तो चलेगा ।

लेकिन पूरा-पूरा मामला ऐसा नहीं है । हालांकि भारतीय चुनाव प्रणाली में सुधार की भारी जरूरत है लेकिन तब पर भी जो वर्तमान व्यवस्था है वह भी काफी हद तक ठीक है ।

एक मतदाता के रूप में पंचायत व नगरीय निकाय के चुनाव में अपने वोट का मूल्य समझने वाला मतदाता लोकसभा चुनाव व विधानसभा चुनाव में अपने मत को निर्मूल्य क्यों समझने लगता है ? इस प्रश्न का जवाब छिपा है वोट बैंक में ।

आखिर वोट बैंक क्या होते है ? कैसे बनते हैं ? हम जानते है चुनाव जनता को मौका देते हैं अपने अनुसार नीतियाँ राजनीतिक पार्टियों से लागू करवाने का । इसप्रकार जनता के हित व मुद्दों में स्वतः समानता  स्थापित हो जाती है । यह समानता उन्हें लामबंद कर देती हैं । और चुनाव के आने तक एक वोट केवल एक वोट न होकर वोट बैंक में तब्दील हो चुकता है । स्थानीय स्तर व कुछेक विधानसभा को छोड़ दे तो लगभग हर चुनाव वोट बैंक पर निर्भर करता हैं । कुछ वोट बैंक वर्ग आधारित, जाति आधारित, धर्म आधारित आदि होते हैं । दलित वोट बैंक, ब्राह्मण वोट बैंक जाति आधारित वोट बैंक के उदाहरण है जबकि किसान वोट बैंक वर्ग आधारित वोट बैंक का उदाहरण है । वोट बैंक के फायदे भी है और नुकसान भी है ।

वोट बैंक कैसे काम करते है ? एक उदाहरण लेकर इस बात को और स्पष्ट करते हैं । जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश की आबादी का लगभग 8% जनजाति व 16% दलित है । चूंकि 1931 के बाद  2011 में जाकर जाति आधारित जनगणना हुई और उसके आंकड़े सरकार ने साझा नहीं किये है । लेकिन तब पर भी ओबीसी जनसंख्या का प्रतिशत कम से कम 52% से ज्यादा है । ऐसे में कुल आबादी का 25% या उससे भी कम सवर्ण आबादी है ।

25% आबादी का देश भर में वितरण भी असमान है । इसलिए सवर्ण किसी भी लोकसभा सीट में निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर सकते हैं । अपवाद हो सकते हैं लेकिन आमतौर पर यह मुश्किल है ।

बात को आगे बढ़ाया जाए तो एक विधानसभा क्षेत्र के मामले में भी सवर्ण निर्णायक भूमिका तभी अदा करते है जबकि या तो जनजाति या दलित वोट या ओबीसी वोट का कुछ हिस्सा उनके साथ वोट करें ।

लेकिन पंचायत स्तर पर सवर्ण वोट बैंक हो सकता है । आज भी ग्रामीण भारत जाति के आधार पर बसा है । ऐसे में संभव है कि एक गांव केवल सवर्ण जाति की बहुसंख्या का हो ।

अब बात आती है कि जबकि सवर्ण आबादी बड़े स्तर पर चुनाव में अपने मुद्दों को नहीं उठा सकती है तो क्या उसे वोट करना चाहिए ? ज्यादातर मामलों में यदि सवर्ण जाति आधारित मुद्दे उठाएंगे तो को एक वोट बैंक के रूप में वे असफल सिद्ध होंगे इसलिए जाति के आधार पर सवर्ण वोट बैंक अकेले अक्षम है । जबकि वे इसलिए लामबंद हो कि उन्हें अपनी जाति आधारित मुद्दों संबंधी नीतियाँ लागू करवानी है । इसका बहु प्रचलित उदाहरण है आरक्षण व्यवस्था को हटाना । सवर्ण वोट बैंक आरक्षण व्यवस्था को हटाने के मुद्दे पर लामबंद हो सकता है लेकिन उसके वोट करने से फर्क नहीं पड़ेगा ।

इसलिए सवर्ण स्वयं के जाति आधारित मसलों के लिए वोट बैंक नहीं है । इसप्रकार सवर्ण वोट बैंक कोई चीज नहीं है । सवर्ण वोट बैंक और विभाजित होकर ब्राह्मण वोट बैंक में टूटता है और कई अन्य मुद्दों के लिए ओबीसी, जनजाति के साथ मिलकर एक वोट बैंक का निर्माण करता है ।

अतः पूरी चर्चा का निष्कर्ष यह है कि सवर्ण अपवाद की स्थिति में पंचायत स्तर के चुनाव में वोट कर सकते है लेकिन विधानसभा व लोकसभा के स्तर पर उनके मत का मूल्य नगण्य है ।

एक सवर्ण वोट किसान वोट बैंक, क्षेत्रीय आधार पर बने वोट बैंक का हिस्सा बनकर वोट करता हैं । वह न जानते हुए भी एक वोट बैंक का हिस्सा बन जाता है क्योंकि अकेले उसके मत की कोई कीमत नहीं होती है ।

इसप्रकार जो आबादी जिस क्षेत्र में अल्पसंख्या में रहती है उसका उस निर्वाचन क्षेत्र में स्वयं के मुद्दे पर वोट न करके उसका वोटअन्य मुद्दों के आधार पर बने वोट बैंक का हिस्सा माना जाता है ।

इससे लाभ वोट बैंक बाने वाले प्रभावशाली वर्ग को होता है जबकी कमजोर वर्ग उसके मुद्दों को उठाने के लिए सहायक का काम करता है ।

शनिवार, 16 मार्च 2019

अ नैरो बैंड

अ नैरो बैंड क्या है ? 
अ नैरो बैंड या एक पतली पट्टी । यह संकरी गली के जैसे है । यह समाज में मेन स्ट्रीम के मेन स्पेस को दर्शाती है । यह समाज में सुंदरता, शिक्षा, व्यवसाय, जीवनस्तर, भाषा, पहनावे, खान-पान आदि के मामले में सीमित होती स्वीकार्यता को दर्शाती है ।

अ नैरो बैंड किस प्रकार विभिन्न मामलों में घटती स्वीकार्यता को दर्शाती है ? 
यह सुंदरता के मामले में गोर रंग को प्राथमिकता देती है । व्यवसाय के लिए समाज के अनुसार कुछ कामों को अन्य से बेहतर और उच्च श्रेणी का मानती है। शरीर के लिए स्वस्थ होने के बजाय सुगठित होने पर ज्यादा ध्यान है । भाषा के लिए लोकल लैंग्वेज को अंग्रेजी ने हटा दिया है । और तो और हर किसी के लिए ये पैमाने उनकी मर्जी के बगैर सेट किये गए है । यह पैमाने इतने रिजिड है कि अधिकांश लोग इनको पूरा करने से चूक जाते हैं और वो खुद ब खुद इस संकरी पट्टी से बाहर हो जाते हैं । 

यह बैंड नैरो क्यों है ? 
इसके कई कारण हो सकते हैं । एक जवाब तो यह है कि हर चीज का एक ट्रेंड होता है । पश्चिमीकरण को इसके लिए दोष दिया जा सकता है । पश्चिमीकरण जो वैश्वीकरण के कारण बढ़ रही है । लेकिन पश्चिमीकरण के पहले से यह पट्टी संकरी होती गयी है । प्राचीन भारतीय समाज के उस कालखंड का इसमें योगदान कितना है? जबकि अधिकार जन्म आधारित हो गये थे । शिक्षा का अधिकार जाति और लिंग तक सीमित हो गया था । मनुष्य केवल गौर वर्ण वाले माने जाने लगे थे।पट्टी तो शुरुआत से ही संकरी होती गयी है

इसके आर्थिक व राजनीतिक निहितार्थ भी है । कुछ विशेष ट्रेंड्स को महत्व में रखने से व्यापार के लिए उत्पादन का प्रकार सुनिश्चित हो जाता है । जबकि उत्पाद एक प्रकार का होगा तो यह बड़ी मात्रा में उत्पादित किया जा सकेगा ।

राजनीतिक मसलों पर गोल बंदी आसान हो जाती है जबकि विविधता घटती है । सभी के अलग-अलग मांगों के स्थान पर एक कॉमन मिनिमम कार्यक्रम चलाने से बात बन जाती है । इससे लोगों को सप्रेस करके रखना भी आसान होता है वे स्वयं ही कुंठा से ग्रस्त होकर जीते है और जो कुछ मिलता है उससे संतुष्ट होने लगते हैं । 

समाज मे विविध मसलों पर स्वीकार्यता के घटने के क्या मायने है? 
जब आप जैसे है वैसे होने में आपको निम्न महसूस होने के लिए मजबूर किया जाए तो इसके मायने खोजने पड़ेंगे । शरीर का रंग, जाति और धर्म पर किसी का वश नहीं है । इसके साथ ही जब समाज सुंदरता, शिक्षा, भाषा और पहनावे की कसौटी गढ़ता है तो यह स्वीकार्यता की पट्टी और पतली हो जाती है । ठीक प्रकार से अस्मिता और गर्व से जीने का अधिकार सभी के लिए उपलब्ध न हो पाने की दशा है । 

स्वीकार्यता की यह पतली पट्टी कैसे समाज को दर्शाती है? 
यह कमजोर होते समाज की पहचान है । जिसमें बराबरी के हक की बात पीछे छूट गयी है । इसमें निश्चित पैमाने है । और यह पैमाने अत्यंत कठोर है । शायद ही कोई व्यक्ति सभी पैमानो पर खरा उतर पाए । और वह अपने नैसर्गिक अधिकारों को तक ठीक से अर्जित कर सके ।

अ नैरो बैंड में कमी क्या है  ? 
इसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि यह लोकतांत्रिक नहीं है । किसी वृहत्तर समाज की बड़ी आबादी इसका आचरण करती है लेकिन यह उनकी रजामंदी को दर्शाता नहीं है । इसमें से कई के खिलाफ विरोध होते आये है । घटती स्वीकार्यता ने कमजोर को और कमजोर किया है और शक्तिशाली को और शक्ति सम्पन्न । शक्तिशाली वह है जो इस बैंड की स्वीकार्यता के पैमाने को निर्धारित करता है । एक अपेक्षाकृत छोटी जनसंख्या विभिन्न तरीकों से बड़ी संख्या में लोगों को संकरी पट्टी से बाहर करने में लगी है ।

यह स्वीकार्यता की घटनी सहमति अफोर्डेबल भी नहीं है । यह बाजारीकरण को बढ़ावा देती है जिसमें समाज बिखरने लगता है । परिवार एक संस्था के रूप में टूट जाता है क्योंकि एक परिवार के भीतर ही कुछ लोग नैरो बैंड के अंदर होते है जबकि कुछ बाहर ।

यह दिखावा आधारित व्यवस्था है । यह अस्थायी भी है । जो इसके भीतर है वे लगातार इसमें बने रहने के लिए जरूरत से ज्यादा संसाधन का उपभोग करते है । और जो नैरो बैंड के बाहर है उनके लिए उपयोग योग्य संसाधनों की कमी को बढ़ाते है ।

यह कई सामाजिक समस्याओं की जड़ है ।

"अ नैरो बैंड" रूपी समस्या का समाधान क्या है ? 
सबसे पहले तो हमें यह जानना है कि यह एक समस्या है । तभी इसके समाधान के लिए कदम उठा पाएंगे । इसके समाधान के लिए जागरूकता बेहद जरूरी है । सब को यह समझना होगा कि स्वीकार्यता की पट्टी अत्यंत संकरी है इसलिए इस आधार पर किसी की आलोचना या किनारे न किया जाए ।

इस सँकरी पट्टी के सभी पैमानों को पूरा कर पाना आर्थिक और राजीनीतिक मामलों से जुड़ा हुआ है । यह किसी एक वश के बाहर है । इसलिए व्यक्तिगत दोष और कुंठा से बाहर निकलना है ।

हर कोई अ नैरो बैंड के भीतर आना चाहता है लेकिन संघर्ष इतना अधिक है और संसाधन इतने कम की स्वीकार्यता की पट्टी दोहरी तरीके से सँकरी हो जाती है । पहला तो इसमें स्वीकार्यता के पैमाने अत्यंत कठोर है और दूसरा इसके भीतर आने वाले लोगों की संख्या इससे बाहर हो रहे लोगों से कम है । इसप्रकार इसका समाधान इस बात में भी छिपा है चूँकि समाज का बड़ा हिस्सा इससे बाहर है तो वह परस्पर समस्याओं को हल कर सकता है । 


गुरुवार, 31 जनवरी 2019

आप, मैं और हम सभी को कभी न कभी धैर्य रखने के लिए कहा गया होगा । यदि धैर्य रखने के लिए न भी कहा जाये , तो भी हम स्वतः समझ पाते है कि कभी-कभी धैर्य रखने के सिवाय हमारे पास और दूसरा कोई रास्ता नहीं होता है । लेकिन इसप्रकार तो धैर्य असहाय होने के बराबर हो जाता है । यानी कि जब आप कुछ नहीं कर सकते है तो धैर्य रखिये । इसप्रकार धैर्य तो भाग्य पर निर्भर होना भी हो गया ।

लेकिन धैर्य को परिश्रम से नहीं बल्कि फल से जोड़ा जाता है । अर्थात धैर्य परिश्रम करने के बाद काम आता है । इसलिए धैर्य के गुण को भाग्य से जोड़ना सही नहीं है । भाग्य को मानने वाला कर्म को यथोचित महत्व नहीं दे पाता है ।

और धैर्य असहाय होना भी नहीं है क्योंकि धैर्य कायरों में नहीं होता है । जो व्यक्ति अपने परिश्रम के प्रति ईमानदार होता है वही धैर्य रख पाता है । यदि आपने परिश्रम नहीं किया है तो परिणाम के प्रति आपकी जिज्ञासा और आतुरता परिणाम को बदल नहीं देगी ।

लेकिन जब कभी भी यह कहा जाता है कि आपको धैर्य रखना चाहिए तो इसके क्या मायने होते है ? धैर्य कोई वस्तु तो है नहीं जो खरीद कर रख लिया जाये। फिर धैर्य रखने और न रखने के बीच आप अपने आप में क्या बदलाव महसूस करते हैं ?

असल में धैर्य को लेकर मेरी जिज्ञासा का कारण बड़ा सीधा है । धैर्य वह आधारभूत गुण है जो परिवर्तन से पूर्व हमको तैयार करता है । ऐसे में परिवर्तन कैसा भी हो सकता है ? सकारात्मक या नकारात्मक; बड़ा या छोटा  ।

आम तौर पर धैर्य जीवन में सफलता दिलाता है । इसीलिए हम धैर्य को एक गुण के रूप में समझने की कोशिश करेंगे । धैर्य को समझने के लिए हम इंकरेमेंटलिस्म(incrementalism) और कटेस्ट्रोफीइज़्म(catastrophism) की अवधारणा का सहारा लेंगे । और डार्विन के विकासवाद और सरवाइवल ऑफ दी फिटेस्ट के सिद्धांत को भी  धैर्य से जोड़कर समझेंगे । हम विभिन्न दार्शनिक और तार्किक तरीकों से धैर्य और विकास के संबंध को समझने की कोशिश करेंगे । और यह भी जानेंगे कि कैसे धैर्य हमारी सफलता को रेगुलेट(regulate) करता है ?


तो शुरू करते है एकदम शुरुआत से , शुरुआत से यानी कि पृथ्वी की शुरुआत से जब शायद ही पृथ्वी पर जीवन भी नहीं रहा होगा । उस समय पृथ्वी बहुत गर्म थी । फिर वर्षा हुई । पृथ्वी ठंडी हुई । पृथ्वी की शुरुआत में सागर और सतह इतनी संख्या में बाटें हुए नहीं थे । सारी जमीन एक थी और सारे सागर एक थे । धीरे धीरे परिवर्तन के दौरान पृथ्वी वह रूप ले सकी जिस रूप में आज हम उसे देख सकते हैं । लेकिन पृथ्वी जैसी आज है वैसी बनने में चूंकि समय बहुत अधिक लगा तो हम मान लेते है कि परिवर्तन कि प्रक्रियाएं बेहद धीमी थी । जैसे कि अपरदन (erosion), प्लेट टेक्टोनिक्स (plate tectonics) आदि । लेकिन साथ ही इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है कि सारी प्रक्रियाएं धीमी थी । क्योंकि यदि सारी प्रक्रियाएं ही धीमी थी तो एकाएक होने वाले ज्वालामुखी विस्फोट, भूकम्प , तेज वर्षा और चक्रवात को हम कैसे समझा पाएंगे ? तो आप देख सकते है कि पृथ्वी तीव्र और मन्द दोनों ही प्रकार के परिवर्तन से रूप लेती है ।

यही वजह है कि हमारे पास इंकरेमेंटलिस्म (incrementalism) और कटेस्ट्रोफीइज़्म (catastrophism) जैसी दो बिल्कुल विपरीत विचारधाराएं मौजूद है । जहां एक ओर इंकरेमेंटलिस्म कहती है कि संसार में विकास की स्थितियों की प्राप्ति क्रमवार होती है। और प्रत्येक क्रम समय अवधि से बंधा हुआ है ।वहीं दूसरी ओर कटेस्ट्रोफीइज़्म संसार के परिवर्तनों को तीव्र मानता है । कटेस्ट्रोफीइज़्म विकास के लिए शॉर्टकट्स (shortcuts) की पुष्टि करता है । यह ये समझने में हमारी मदद करता है कि जो कुछ हम आज देख रहे हैं जरूरी नहीं है वह बेहद लंबे समय के परिश्रम या परिवर्तन का फल हो । कटेस्ट्रोफीइज़्म में अचानक हुए बदलावों को सहजता से स्वीकार किया जाता है जबकि इंकरेमेंटलिस्म अचानक हुए बदलावों के प्रति शंका का भाव रखता है ।

अब यह प्रश्न उठता है कि पृथ्वी में हुए परिवर्तनों का किसी के धैर्य से क्या लेना-देना है ? और धैर्य का इंकरेमेंटलिस्म और कटेस्ट्रोफीइज़्म से क्या संबंध हो सकता है ?

पृथ्वी का मनुष्य के धैर्य के गुण से सीधा संबंध न दिखे किंतु मनुष्य और पृथ्वी का सीधा संबंध है । मानव के मानव बनने का इतिहास भले ही पृथ्वी के इतिहास से छोटा है । लेकिन मानव का इतिहास बड़ी खोपड़ी वाले आदिमानव से आधुनिक मानव बनने का इतिहास है । यह इतिहास महत्वपूर्ण इसीलिये है क्योकि मनुष्य ने धैर्य किया । बहुत सीधे शब्दों में कहे तो वनमानुष से आधुनिक मानव बनने के बीच का अंतर मनुष्य का धैर्य है । धैर्य , साधारण को विशिष्ट बनाने वाला गुण है। धैर्य मनुष्य को बड़े परिवर्तनों के लिए तैयार भी करता है । और प्रायः एक उत्तरोत्तर अवस्था में पहुंचता है ।

आप ही सोचिये ! आग की खोज और पहिये की खोज एकाएक हुई या क्रमिक परिवर्तन से । यह मनुष्य के धैर्य का फल था या एक चमत्कार । यह इंकरेमेंटलिस्म था या कटेस्ट्रोफीइज़्म । लेकिन अध्यनन बताते है कि विभिन्न  प्रारंभिक खोजें धैर्य का और क्रमिक सुधार का फल थी। और धैर्य रखने के दौरान ऐसे कटेस्ट्रोफीइज़्म ने मानव को एकाएक बड़ी छलाँग लगा दी ।

डार्विन और डार्विनवाद (darwinism) की वैकल्पिक थियोरियाँ (theories) भी क्रमिक विकास के पक्षधर है । डार्विन ने मानव के एवोल्यूशन(evolution) को क्रमवार तरीके से समझा है । इसके अलावा सरवाइवल ऑफ दी फिटेस्ट का सिद्धांत भी एवोल्यूशन(evolution) को समझता है । यह तुलनात्मक श्रेष्ठता को कसौटी के रूप में निर्धारित करता है । विकास के दौर में वही बच पाएगा जो श्रेष्ठ होगा । और श्रेष्ठ या सर्व उपयुक्त (फिटटेस्ट) होने के लिए नयी चुनतियों के अनुसार नए हुनर सीखने होने । सीखने के लिए धैर्य चाहिए होता है । इसप्रकार जिसमें धैर्य था , वही बच पाया ।
डार्विनवाद(darwinism) की वैकल्पिक थियोरियाँ जैसे कि ग्रेड्यूएलिस्म (gradualism) ने भी क्रमिक विकास को ही महत्व दिया है । क्रमवार तरीके से बड़े बदलाव को हासिल किया जा सकता है । हालांकि इस सिद्धान्त में परिस्थिति और समय का अवरोध रहता है ।

इस प्रकार हमने देखा कि किसप्रकार पृथ्वी के विकास का मानव के धैर्य से गहरा सम्बंध है । और किस प्रकार धैर्य इंकरेमेंटलिस्म स्कूल ऑफ थॉट्स का आधारभूत तत्व है । हालांकि हमने यह भी जाना कि भले धैर्य इंकरेमेंटलिस्म को सहारा देता है लेकिन धैर्य का फल कटेस्ट्रोफीइज़्म के माध्यम से मिलता है ।

अब तक कि बातचीत से शायद हम धैर्य और उसके वैचारिक और तार्किक पक्षों से भली भांति परचित हो गए है । और दैनिक जीवन में धैर्य के महत्व को पहचाने और अपनाने से जुड़ी चर्चा को समझने में सक्षम होंगे । जिसकी बात आगे की गई है ।  इसके साथ ही हम यह भी जान पाने में सक्षम होंगे कि धैर्य ( patience ) किस प्रकार हमारी सफलता को रेगुलेट(regulate) करता है ।

दैनिक जीवन में धैर्य हमें न तो अक्षम होने और न ही भाग्य वादी होने की सीख देता है । धैर्य परिश्रम के बाद काम आता है । धैर्य वही रख पाता है जिसने परिश्रम के दौरान सत्यनिष्ठा दर्शायी है । सत्यनिष्ठ व्यक्ति धैर्यवान भी होता है । और बिना परिश्रम के धैर्य रखना किसी अर्थ का नहीं है । परिश्रम के बिना धैर्य अक्षमता और भाग्यवादी होने को दर्शाता है ।

अंततः धैर्य और सफलता के बीच के संबंध को समझते है । सार्वजनिक जीवन में हर प्रेरणादायी व्यक्तित्व कठिनाईयों से संघर्ष की कहानी कहता है । हर वह व्यक्ति जो आज अविश्वसनीय स्तर का कार्य कर रहा है,  और दुनिया के कुछ चुनिंदा लोगों में गिना जाता है । वह कई बार विफल हुआ है । बिल्कुल उसी प्रकार से विफल हुआ है जैसेकि सम्पूर्ण मानव समाज विफल हो हो कर सफल हुआ है । उसने एक बार में कोई बड़ी खोज नहीं की । वह क्रमिक विकास के द्वारा आगे बढ़ा है। विफल हो कर सफल होना मानव के जेनेटिक स्ट्रक्टचर (genetic structure) में है ।

तो प्रश्न उठता है कैसे कुछ लोग एकाएक सफल होने का दावा करते हैं ? तो उत्तर है कि यह सिर्फ एक धोखा है । बात को गलत तरीके से कहने का तरीका है । यह वही बात है कि भले ही आग की खोज कितने असफल प्रयासों के बाद कि गयी थी लेकिन आज हमें उतनी ही आसानी से उपलब्ध है । मनुष्य एक बार धैर्य से जो साधता है उसका फल सारा संसार खाता है । हालांकि कुछ लोगों ने अपने हिस्से के धैर्य  से कमाए फल को छिपा कर रखा और चले गए । हम आजीवन अपने धैर्य से कमाए फल को संसार में बाटते है और दूसरे के धैर्य के फल को चखते हुए जीते हैं । 






मंगलवार, 15 जनवरी 2019

सभ्यता के इतिहास में मनुष्य सबसे पहले क्या सीखा ? उसने सीखा कि कैसे जानवरों को वश में किया जाए ? वह पशुपालक बना । उसने जाना कि किसी को नियंत्रित करना जीवन को आसान बनाता है । खाने और पहनने की चिंता दूर हो जाती है ।

मनुष्य ने बाद में जल को नियंत्रित करने के लिए छोटे बांध बनाये । यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वह सूरज और चंद्रमा को भी नियंत्रित करना चाहता था। उसने यानी कि मनुष्य ने सूरज के बारे में तफ्तीश की । यह आता कँहा से है और जाता कँहा है ? यह शक्ति की भूख थी ।

जब प्रकृति में उसके लिए हर तरफ खतरे थे । उसने नियंत्रण करने को अपने अस्तित्व के लिए अनिवार्य माना । और बाद में मनुष्य दूसरे मनुष्यों को नियंत्रित करने लग गया । वह शासक बन गया । कुछ प्रजा बन गए । शासक प्रजा को नियंत्रित करने लगा । प्रजा, किसी और को । यह श्रृंखला यूँही चलती गयी । यह श्रृंखला इतनी लंबी चली गयी कि जो बात मनुष्य और जानवरों से शुरू हुई थी वह पुरुष द्वारा स्त्री को नियंत्रित करने तक जा पहुंची ।

कभी कभार ऐसा भी हुआ कि नियंत्रण कमजोर पड़ने लग गया । राजा के मन का नहीं हो रहा था तो उसने प्रजा को कमजोर करने की सोंची । वह यानी कि राजा प्रजा को नियंत्रित करना चाहता था और नियंत्रित करने के लिए प्रजा को कमजोर करना जब जरूरी हो गया तो उसने भेदभाव बोये ।

यँहा ये बात जरूर उठती है कि इसका क्या प्रमाण है कि समाज के भीतर के भेदभाव व असमानता राजा की बोई हुई है या फिर प्रजा के स्वयं के बनाये हुए । लेकिन इस बात में तो पूरी सच्चाई है कि राजा या फिर शासक समाज में मौजूद असमानता को खत्म कर सकता था । सभ्यता के हजार दो हजार साल तक पुरुष और स्त्री के बीच अंतर लगभग नाम मात्र को रहता है । उसके बाद के हजार सालों में यह अंतर गहरा जाता है । जबकि इन्हीं हजार सालों में जबकि महिलाओं व बच्चियों के लिए बाहर की दुनिया में अस्वीकृति बढ़ रही थी, शासक वर्ग और ज्यादा ताकत वर होता जा रहा था । ऐसे में क्यों न कहे कि शासकों ने इस बात की मौन स्वीकृति दी कि महिलाएं घरों की चार दिवारी तक सीमित हो जाए ।

यदि इन सब बातों का और सामान्यीकरण करें , तो आज भी हाल कुछ ऐसा ही दिखता है । बात है क्रिकेट खिलाड़ी हार्दिक पांड्या और के एल राहुल के कमेंट की । कमेंट तो सेक्सिस्ट थे लेकिन जिम्मेंदार केवल ये दो खिलाड़ी बस नहीं है बल्कि वे सब है जिन्होंने इसकी मौन स्वीकृति दी है । मौन स्वीकृति दी है ! उस समय चुप रहकर जब आपको आवाज उठा कर कहना था कि आप ऐसा नहीं कह सकते हैं । आपको अपनी नाराजगी बिना किसी डर के दिखानी चाहिए थी , चाहे आप महिला हो या पुरुष लेकिन आपने बचने का और न उलझने का रास्ता चुना और आप आखिरकार उलझ ही गये ।

लेकिन सबकि मौन स्वीकृति का एक बराबर महत्व नहीं होता है । जब आम इंसान चुप रहता है तो उसका दायर छोटा होता है लेकिन यदि देश का प्रधानमंत्री ऐसा करता है तो एक बहुत बड़े दायरे में मौन स्वीकृति का प्रभाव होता है । और जब सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी में से एक के राष्ट्रीय अध्यक्ष सेक्सिस्ट बयान देते हैं तो बात और गंभीर हो जाती है ।

सेक्सिस्ट होना , लिंग के आधार पर महिलाओं को नीचा दिखाना है । जब किसी कथन को सेक्सिस्ट कहा जाता है तो उससे सीधा सा तात्पर्य यह होता है कि उस बात को बोला ही गया इस लिए है ताकि सुनने वाले को एक विशेष लिंग का होने के कारण हीन भाव आये । यह कितना हास्यास्पद है कि लिंग का चयन एक प्राकृतिक मसला है लेकिन उस पर गर्व किया जाता है। केवल यही बात नहीं जबकि जाति और चमड़ी का रंग भी पूर्णतः मनुष्य के वश के बाहर होने के बाद भी उसे ताउम्र तंग करता रहता है ।

इन्ही बातों के संबंध में एक घटना आपको बताता हूँ । एक फोर व्हीलर गाड़ी के शोरूम में किसी काम से मुझे जाना पड़ा । वंहा पर क्वालिटी कंट्रोलर के पद पर एक महिला पदस्थ थी । किन्ही कारणों से आफिस में अजीब से फ़ाउल स्मेल आ रही थी । इस पर एक अन्य पुरुष कर्मचारी उस महिला सहकर्मी से कहा कि आप रूम फ्रेशनर स्प्रे करवा दीजिये । यह एक वाजिब मांग है मगर थोड़ा रुककर उसने अपनी बात में यह भी जोड़ दिया कि यँहा जो गंदगी है उसके लिए आप तो झाड़ू भी लगा दीजियेगा । यह कहते हुए उसकी बात में हंसी थी । सम्भव हो वह गंभीर न हो , सिर्फ मजाक के लिए ऐसा कहा हो । लेकिन मजाक करने की शर्त ये है कि सभी को हंसी आनी चाहिए । क्योंकि यदि मजाक पर आप नहीं हंस रहे है तो इसके दो ही अर्थ है या तो मजाक आपको समझ में आया ही नहीं या फिर मजाक आप पर किया गया था जो कि आपको पसंद नहीं आया । इन्हीं दो ही मामलों में अक्सर लोग नहीं हँसते है ।

मुझे तो पूरी घटना देख कर ऐसा तो बिल्कुल नहीं लगा कि मजाक या तंज या शब्दों के सहारे की गई इस छींटा कशी को समझा न जा सके । जरूर दूसरा वाला ही कारण रहा होगा । मजाक करने वाले के लिए हंसी से भरा था लेकिन सुनने वाले के लिए नहीं ।

तो आप ही बताइए ऐसा करना चाहिए या नहीं ? यदि नहीं करना चाहिए तो हर रोज ऐसा क्यों करते है लोग ? और आपको क्या लगता है महिलाओं पर भविष्य में ऐसी छींटा काशी घटेगी या बढ़ेगी ? ओबियासलि बढ़ेगी ही । जैसे जैसे महिलाएं पुरुषों को रोजगार के विविध क्षेत्रों में प्रतिस्थापित करेंगी वैसे वैसे ही अपनी खीज और बेचैनी के कारण शब्दो से प्रहार किए जाएंगे । और यह केवल आफिस तक सीमित न होकर आफिस के बाहर भी होगा ।

तो अंत में ऐसे में क्या करना चाहिए ? ऐसे में सबसे पहले आप आत्मविश्वस के साथ सेक्सिस्ट कमैंट्स पर प्रतिक्रिया देना शुरू करें । आप अपनी भावनाओं के प्रति ईमानदार बनाइये । यदि किसी की भी बातों से ऐसा लगता है कि यह बात सिर्फ आपको इसी लिए कही जा रही है क्योंकि आप एक लड़की है या महिला है तो आपको विरोध तुरंत ही शालीनता से दर्ज करवाना चाहिए ।

समस्या के बढ़ने पर आफिस स्तर पर वर्कप्लेस पर उत्पीड़न से जुड़ी समिति के पास बात रखनी चाहिए । समस्या के गंभीर मोड़ लेने से पहले पुलिस तक आपको पहुंच बनानी चाहिए । और सरकार की योजनाओं जैसे कि SHE बॉक्स पोर्टल का उपयोग करना चाहिए ।

आपको यह समझना जरूरी है कि आपको नियंत्रण में लाने के लिए ऐसा किया जा रहा है । आपके पास दो ही विकल्प है, नियंत्रण में आ जाये और अब इस धोखे में जीये कि सब कुछ ठीक है । या फिर विरोध करिये । और बताइये कि सब कुछ ठीक नहीं है ।

रविवार, 13 जनवरी 2019

       सोचिये जरा ! यदि आपको एक मौका मिले । अपने अनुसार अपनी दुनिया गढ़ने का । हालाँकि यह मौका भी सबको नहीं मिलेगा क्योंकि प्रवेश परीक्षाएँ हर जगह होती है । यह समझना आज मुश्किल है कि प्रतिस्पर्धा के बगैर भी कुछ मिल सकता है । 

       तो अपने अनुसार अपनी दुनिया गढ़ने का कैसे मिल जाएगा ? और मिलता भी नहीं है । भारत में कम से कम कठिन तो ,आसान चीज भी होता ही है न । वैसे ही यह भी हो गया । आप समझ लीजिए ग्रेजुएशन के बाद अगर यूपीएससी करना है तो अलग से एक ठो क्रोमोसोम जीन में लगा के आना पड़ता है । काहेकि कि सब को मौका सब के जैसा नहीं मिल पाता है । 

       और यही से आप गढ़ने लगते है, अपनी दुनिया । जिसमें कौन कौन होंगे । दोस्त होंगे, दोस्तियां होंगी । रूम होगा आपका । रूम में किताबे होंगी, अखबार का ढेर होगा । अब सोचिये अगर महीना भर आप रूम में ही बंद है और दुनिया से खाली नेट या फिर अखबार से इंटरैक्ट करते है तो आपका दुनिया बन गया कि नहीं । हाँ ! हम ये जरूर मान सकते है कि यह आपके मन माफिक न हो । लेकिन वो भी हो जाता है । 

        अब कैसे हो जाता है ? यही तो राज है । दिल्ली जाइये, यूपीएस सी का तैयारी करिये और हाँ ! मुखर्जी नगर में रूम लेके जरूर रहिएगा । तब खुद ही जान जाइयेगा । लेकिन इतना कष्ट मत उठाइये । हम है न हम राज से पर्दा उठाये देते है । 
       
         हमको यह बात कभी कभी बहुत कचोटता है कि हम दिल्ली भी गए, यूपीएससी का तैयारी भी करे लेकिन मुखर्जी नगर में रह के नहीं कर पाए । हम दुनिया तो बनाये लेकिन उसमें हम थे, यूपीएससी भी था लेकिन इस दुनिया का वैलिडिटी नहीं था । एक दम बोलते तो असंवैधानिक दुनिया था हमारा । संसद से पास हो भी जाता तो न्यायालय में टिक न पाता । लेकिन हाँ ! हम जब भी क्लास करने मुखर्जी नगर जाते थे और समय रहता था तो दोस्ते के रूम में जरूर जाते थे । उनकी दुनिया में बहुमत वाला मजा था । स्पीकर से लेकर राष्ट्रपति सब उनके थे । खाली विपक्ष की पोजीशन में यूपीएससी था । सरकार हमारी भी गिरी और उनकी भी । लेकिन मजा तो था न !  
 
       एक और संकट है ! अपने अनुसार दुनिया बनाने में । और वो है विचारधारा का । हमने जिंदगी में पहली बार मुखर्जी नगर पहुँच के जाना कि अपनी विचारधारा होनी चाहिए, जीवन दर्शन होना चाहिए । हमने पूछा भी क्या सब की होती है, जवाब मिला हाँ ! सब की होती है। जिससे हमने यह सवाल पूछा उनकी तो थी वो मुखर्जी हमसे पहले आ गए थे , हम नए थे तो हमारी विचारधारा भी नही थी और बेहद नई थी । 3 महीने तक हमें दिल्ली की जीवन शैली बढ़ी रास आयी । तो हम न जानते हुए भी शहरीकरण के पक्षधर बन गए । लेकिन शहरीकरण तो कोई विचारधारा नहीं है । तभी तो कहा कि विचारधारा हमारी नहीं थी । विचारधारा होने के लिए इज़्म होना चाहिए , वाद होना चाहिए । शहरीकरण में तो करण है । लेकिन मुखर्जी नगर ऐसे ही थोड़ी फेमस है, यंहा दिमाग चकर वाना है तो खाली कान खोल के बच्चा लोग का बात सुन लीजिए । अइसने ही एक दिन हम भी किसी को कहते सुने लिए कि यँहा सब की आँखों मे एक ही रंग का चश्मा चढ़ा हुआ है और वो है लाल । हम सकपका  गए , नए तो थे ही दिल्ली में । पहले उस व्यक्ति को देखे फिर सबके चेहरे पर देखे । भीड़ में न वो व्यक्ति दिखा और एक्का दुक्का चेहरे को छोड़कर चेहरों पर न चश्मे दिखे । ऐसा कुछ भी नहीं था कि चश्मे लाल ही हो । 

        लेकिन फिर एक दिन जब हम क्लास में एंटर कर रहे थे तो हमारे लिए एक उड़ता हुआ लाल सलाम आया । हमें बड़ा मजा आया । लाल सलाम सुनते ही चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी । हम भी उछल कर लाल सलाम बोल दिए और क्रांति होकर रहेगी ये भी जोड़ दिए प्रत्युत्तर में ।  हमको तो पता चल गया था कि एक इज़्म और एक लाल चश्मा हमारे पास भी हो गया है । लेकिन ये इतना आसान नहीं था और न ही एक तरफा । विश्व इतिहास में जो पूंजी लगाए थे उस पूंजी के लाभ से आधुनिक भारत में उपनिवेशवाद की रेल चला चुके थे । कला संस्कृति और राजव्यवस्था में थोक के भाव वाद और इज़्म कि कमी पूरी हो गयी थी । स्थिति ये हो गयी कि पहले खोजे खोजे एक विचारधारा मिलती थी बताने के लिए, अब हाल ये है कि पहले किसको बोले कहीं सुनने वाला जान न जाये हम किसी के फॉलोवर है । 

      अब जो प्रक्रिया शुरू हुई थी अपने अनुसार दुनिया बनाने की वो लगभग पूरी हो चुकी थी । एक कमरा था, हम थे , दोस्त थे , किताबे थी , अखबार का ढेर था , मंथली मैगज़ीन थी , टिफिन थी और एक विचारधारा । हम रूम में लगे वर्ल्ड मैप को जभी भी देखते थे, रूस से देखना शुरू करते थे । पता नहीं क्यों ? शायद बड़ा सा देश है इसीलिए ध्यान उधर पहले चला जाता है । आजादी के बाद भी सरकार ने रूस को ही देखा शायद उनके साथ भी यही कारण रहा होगा । 

ऐसा तो हुआ नहीं होगा कि हम बीमार होना चाहते हैं । हम आराम चाहते हैं । आराम, बहुत ज्यादा आराम हमें बीमार बना देता हैं । लेकिन गरीब आराम नहीं करता है । बल्कि ये कहिये की गरीब की नसीब में ही आराम नहीं है । फिर भी गरीब के नसीब में बीमारियां है ।

       बीमारियों का भला किसी की अमीरी और गरीबी  से क्या लेना देना हो सकता है ? लेकिन इलाज का तो है न ! आप ही बताइए है कि नहीं । आप कहियेगा सरकार की योजनायें चल रही है । गरीब व निर्धन भी बेहतर स्वास्थ्य सेवा ले सकता हैं । ठीक बात । और जिसके पास पैसा है उसके पास पैसा है , उसका तो फैमिली डॉक्टर भी हो सकता है जो घर आकर इलाज करेगा ।

        लेकिन सारा भारत केवल गरीब या अमीर थोड़ी ही है न । जैसे कि पूरा भारत केवल हिन्दू और मुसलमान नहीं है । जैन भी है , पारसी भी है , बौद्ध भी है । वैसे ही मिडिल क्लास नाम की भी तो कोई चीज होती है । साहब ! आप बताइए कौन सी सरकार की स्वास्थ्य योजना मिडिल क्लास के लिए है ।

"हम इतने गरीब न हुए कि हाथ फैला सके और न इतने रईस हुए कि हाथ उठा सके । हम पीस गए योजनाओं को चलाने के लिए टैक्स कमाने में ।"

कुछ ज्यादा ही नेगेटिव हो गया क्या ?

        मगर सच बोल रहे है हम । नेगेटिव-पॉजिटिव सेंटीमेंट्स नहीं चेक कर रहे हैं । देश मे कोई पूछने वाला नहीं है कि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में सिर्फ 10 करोड़ परिवारों को 5 लाख तक का मुफ्त इलाज क्यों ? देश में लगभग 22 करोड़ परिवार है । देश में आय विषमता पिछले 15 वर्षों में बढ़ी ही है । पूंजी का संकेन्द्रण ऊपरी 10 प्रतिशत लोगों के पास हुआ है । ऐसे में 10 करोड़ सबसे गरीब परिवार का इलाज करने से क्या होगा ?

       आप को लग रहा होगा कि ? आंकड़ों को घुमा फिराकर अपनी बात रख रहा है । तो मैं भी सोचता हूँ क्यों न अपनी ही बात रख देता हूँ । आंकड़ों में इतना आपको क्यों उलझाया जाएं ।

      ज्यादा दिन पहले की बात नहीं है मुझे , अपने एक फैमिली मेम्बर की तबियत खराब होने के कारण अस्पताल ले जाना पड़ा । मेरे पास प्राइवेट क्लिनिक में इलाज कराने का विकल्प था और पैसे भी । लेकिन एक बार के लिए मुझे लगा क्यों न गवर्नमेंट हॉस्पिटल में जाकर इलाज कराया जाए । आखिर हम टैक्स देते हैं लेकिन हिसाब लेने के वक्त पीछे हट जाते हैं । तो मैं गवर्नमेंट हॉस्पिटल गया । 10 रुपये की पर्ची कटाई और लाइन में लग गया । बारी आई , इलाज हुआ , पर्ची में डॉक्टर द्वारा लिखी दवाइयां मुफ्त में मिली । लेकिन बीमारी ठीक न हुई । समस्या को बढ़ते देख मैं दुबारा अस्पताल गया । इस बार मरीजों की संख्या ज्यादा होने के कारण डॉक्टर साहब को दिखा तक नहीं पाया । अब क्या किया जाए ! इलाज तो करवाना है । 

      मेरी अभी भी इच्छा यही थी कि इलाज सरकारी अस्पताल में ही करवाना है । और हम फिर से जाएंगे । भले इस बार नहीं तो अगली बार सही । अबकी बार सुबह सवेरे ही जाके लाइन में आगे लग जायेंगे । लेकिन इलाज की जरूरत बढ़ती जा रही थी और देर करने से समस्या गंभीर हो सकती थी इसलिए बहुत ताल मटोल के बाद जिन डॉक्टर साहब से सरकारी अस्पताल में इलाज मात्र 10 रुपये की  पर्ची काटकर करवाया था । उनके प्राइवेट क्लिनिक चलाया गया ।

      प्राइवेट क्लिनिक, सरकारी अस्पताल से काफी व्यवस्थित था । डॉक्टर साहब 300 रुपये फीस लिए । बहुत ध्यान से मिले , सारी बात सुने । इलाज भी हुआ और राहत भी पहुंची । बात ध्यान देने वाले ये है कि एक ही व्यक्ति एक सरकारी और प्राइवेट होने भर से जिम्मेदारियों को निभाने में कितना बदल गया ?

     प्राइवेट होके हर मरीज का 300 ले रहे है तो ठीक से इलाज कर रहे है । सरकारी अस्पताल में तनख्वाह मिल रही लेकिन काम ठीक से नहीं कर पा रहे । शायद देश में डॉक्टर ही एक पेशा बन गया है जिसमें लोग सरकारी के बजाय प्राइवेट नौकरी चाहते हैं । और हाँ ! शिक्षक का भी मामला कुछ इसी लाइन पर चल रहा है । स्कूल की बजाय ट्यूशन में टीचर बेहतर पढ़ाते हैं । देश में शिक्षा और स्वास्थ्य का ऐसा बाजारीकरण हुआ कि पूछिये मत ! एक दम सर्जिकल स्ट्राइक कर देने का मन करता है । लेकिन हो नहीं पा रही है ।

    अभी तक हम आपको केवल समस्या समस्या बताये जा रहे हैं । लेकिन समस्या तो आप भी जानते ही थे । कुछ हद तक भोगे भी होंगे । चलिए समाधान की ओर भी आप को ले चलते हैं । इस तरफ आपका जाना शायद न हुआ हो ! हम सोच रहे थे कि डॉक्टर साहब से जाके पूछते कि सर आप सरकारी डॉक्टर के लिबाज में दूसरे प्रकार का काम चलाऊ , ग्राहक बनाऊ टाइप का इलाज करते हैं । और अपने प्राइवेट क्लिनिक का ग्राहक बनाके बड़े ध्यान से टिकाऊ व कमाऊ टाइप का इलाज करते हैं । ऐसा क्यों सर ?

    फिर हम नहीं पूछे ? पूछ लेते भी तो क्या जवाब मिल जाता ? जवाब मिल जाता भी तो क्या वह जवाब पूरा होता या अधूरा कौन बता सकता है ? 

    लेकिन हम सोचे कि आखिरकार ऐसा क्यों हो रहा है ? हमको दो तीन चीज समझ में आया । पहला, तो ये कि सरकारी अस्पताल में जितना जिम्मेदारी दिया जाता है उसके अनुपात में तनख्वाह नहीं दिया जाता है । दूसरा, डॉक्टरी की पढ़ाई ही इतनी महंगी है कि खाली आप तनख्वाह से पढ़ाई का लोन नहीं न पटा पाएंगे तो सप्लीमेंट्री इनकम सोर्स बनाएंगे ही । तीसरा , देश में डॉक्टर का जबरदस्त कमी है । ऐसे में डिमांड सप्लाई इमबेलेंस के कारण प्राइवेट इलाज महंगा होता जा रहा है। चौथा, चलिए इलाज का पैसा दे भी ले । सरकार जेनेरिक दवाई उपलब्ध करा पाने में असमर्थ है ।

  आप को याद होगा कि अभी दवाई दुकान मालिकों ने ऑनलाइन दवा बिक्री के खिलाफ देशव्यापी हड़ताल किया था । क्यों किया था ? क्योंकि उससे इनका धंधा डाउन हो रहा था । अरे ! एक दम ही बुड बक्क समझ रखे है क्या हमको ? हमको दिखता नहीं न है का कि अगर जेनेरिक आ गया तो उससे भी इनका धंधा डाउन ही होगा न । आपको बहुत आसानी से सुनने को मिल जाएगा कि प्रधानमंत्री जन औषधि योजना के दुकानों में दवाई नहीं मिल पा रही है । वही प्राइवेट दुकान में सारा दवाई है और सरकार की खोली दुकान में दवाई ही कभी नहीं रहता है । रिसर्च कहता है कि महंगी दवाई के कारण 40 प्रतिशत इलाज का खर्च दवा खरीदने में चला जाता है ।

   अब तो सारा तस्वीर लगभग लगभग क्लियर होने लगा हो गया होगा कि नहीं ! डॉक्टर प्राइवेट में इलाज ठीक से करेगा । जेनेरिक दवाई आपको मिलेगा नहीं । स्वास्थ्य बीमा योजना गरीबों के लिए है । अमीरों को इससे फर्क ही नहीं पड़ता कि क्या उत्पात मचा हुआ है ? 

    कुल मिलाकर सार यह हुआ कि लाइफ में कट ऑफ सेट है ? उसके नीचे गए तो सरवाइवल का दिक्कत आएगा ही आएगा । जीना है तो छीनना पड़ेगा । अपना हिस्सा भी और दूसरे का भी । क्योंकि डॉक्टर ने यही किया है उसने जो फीस एक प्राइवेट क्लिनिक में ली शायद उसकी नौबत ही न आये अगर सरकारी डॉक्टर के रूप में वो ठीक से इलाज करें तो !