हाल ही में देश के आम चुनाव खत्म हुए है । लगभग आधे से ज्यादा देश की जनता इसमें शामिल हुई । यह दुनिया के किसी भी दूसरे लोकतांत्रिक देश की तुलना में बेहद बड़ा चुनाव था । हालांकि चुनाव आयोग आम चुनाव को लोकतंत्र के त्योहार के रूप में प्रोजेक्ट करता है । यह त्योहार हर पांच साल बाद गर्मी के मौसम में आता है । चूंकि भारत उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है इसलिए अप्रैल - मई का मौसम भीषण गर्मी का होता हैं । इतनी भीषण गर्मी के बीच सैकड़ों की संख्या में विशाल रैलियां, हेलीकाप्टर का शोर, लगातार थका देने वाली यात्रा पूरे अभ्यास को कई गुना कठिन बना देती है । चुनाव के दौरान होने वाली हिंसा, अव्यवस्था और चुनाव संबंधी अन्य अपराध प्रमुख चुनौतियाँ है । लेकिन जब यह सब इतना ही कठिन और दुस्साध्य है तो चुनाव होते ही क्यों है ?
चुनाव इसलिए होते है क्योंकि चुनाव देश की सत्ता की चाभी है । चुनाव यह सुनिश्चित करते हैं कि अगले पांच वर्ष किस प्रकार की नीतियां विभिन्न क्षेत्रों में लागू होंगी और जनता के लिए कौन से मुद्दे जरूरी है ।
देश में चुनाव तीन स्तर पर होते हैं । पहला राष्ट्रीय, दूसरा राज्य और तीसरा स्थानीय निकाय । मुख्यतः सत्ता की शक्ति केंद्र और राज्य के बीच बटती है ।
क्या हर चुनाव एक समान जरूरी होता है ? राष्ट्रीय चुनाव ज्यादा महत्व के होते हैं । राष्ट्रीय चुनाव जिन्हें आम चुनाव या लोकसभा चुनाव कहा जाता है राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों को प्रभावित करते है इसीलिए ये अन्य चुनावों से ज्यादा महत्वपूर्ण है ।
राष्ट्रीय चुनावों के अतिरिक्त राज्य स्तर के चुनाव, स्थानीय स्तर के चुनाव भी होते हैं ।
हर प्रकार का चुनाव जीतने के लिए सर्वाधिक मत प्राप्त करना पड़ता है । सबसे ज्यादा मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार जीत जाता है । किसी भी पार्टी के किसी भी उम्मीदवार की जीत-हार का निर्णय मतदाता के द्वारा डाले गए मत से होता है।
क्या हर चुनाव में मतदाता की भूमिका एक समान होती है ? नहीं ! हर स्तर के चुनाव में मतदाता की भूमिका , उसके मत की ताकत एक समान नहीं होती है । मतदाता के मुद्दे भी हर चुनाव में एक समान नहीं होते हैं ।
आखिर व्यक्ति तो वही रहता है तो फिर चुनाव के अनुसार उसके मत का मूल्य क्यों घट जाता है ? ऐसा निर्वाचन क्षेत्र के बढ़ते आकार, जातिगत व धार्मिक लामबंदी के कारण होता है ।
स्थानीय पंचायत चुनाव में ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्र एक गाँव या शहरी निर्वाचन क्षेत्र में एक मुहल्ला होता है । छोटा निर्वाचन क्षेत्र होने के कारण प्रत्येक वोट का मूल्य अधिक होता है । और यह बात ऐसे भी सिद्ध होती है कि स्थानीय चुनावों में जीत या हार का अंतर लगभग 100-200 वोट का होता है । पंचायत स्तर पर कभी-कभी बराबर मत भी मिल जाते हैं । ऐसे में स्थानीय स्तर पर एक-एक मत बहुत कीमती होता है । लेकिन जब कि मतदाता के एक मत का मूल्य अधिक होता है लेकिन मुद्दे अत्यंत सीमित महत्व के होते हैं ।
इसीप्रकार राज्य स्तर पर विधानसभा का निर्वाचन क्षेत्र स्थानीय निर्वाचन क्षेत्र से थोड़ा और बड़ा होता है । एक विधानसभा क्षेत्र में औसतन लाख से दो लाख वोट होते हैं । दो लाख वोट वाले विधानसभा क्षेत्र में जीत का अंतर आमतौर पर 40 से 50 हजार तक रहता है लेकिन बहुत टाइट मुकाबले में यह अंतर 1000 से 500 वोट तक भी गिर जाता है । इसप्रकार विधानसभा चुनाव में मतदाता के एक मत का मूल्य थोड़ा कम हो जाता है ।
असल में किसी चुनाव में जीते हुए उम्मीदवार और दूसरे नम्बर पर आए उम्मीदवार के बीच के मत अंतर से उस निर्वाचन क्षेत्र में एक मत के मूल्य का आकलन किया जाता है । यदि यह अंतर स्थानीय चुनाव में 1 वोट का है तो एक-एक वोट कीमती है लेकिन यदि यही अंतर लोकसभा चुनाव या विधानसभा चुनाव में 1 लाख वोट या 50 हजार का है तो मतदाता के मत का मूल्य गिर जाता है ।
इसी प्रकार लोकसभा चुनाव में भी होता है । एक लोकसभा क्षेत्र लगभग 10 विधानसभा क्षेत्र से मिलकर बनता है । उसमें लगभग 10 लाख से लेकर 20 लाख तक वोट होते हैं । और जीत का मार्जिन भी 1 लाख से 2 लाख वोट का होता है ।
इसप्रकार के आकलन से तो ऐसा प्रतीत होता है कि मतदाता को पंचायत चुनाव में जरूर वोट करना चाहिए लेकिन विधानसभा और लोकसभा चुनाव में वोट नहीं भी करेगा तो चलेगा ।
लेकिन पूरा-पूरा मामला ऐसा नहीं है । हालांकि भारतीय चुनाव प्रणाली में सुधार की भारी जरूरत है लेकिन तब पर भी जो वर्तमान व्यवस्था है वह भी काफी हद तक ठीक है ।
एक मतदाता के रूप में पंचायत व नगरीय निकाय के चुनाव में अपने वोट का मूल्य समझने वाला मतदाता लोकसभा चुनाव व विधानसभा चुनाव में अपने मत को निर्मूल्य क्यों समझने लगता है ? इस प्रश्न का जवाब छिपा है वोट बैंक में ।
आखिर वोट बैंक क्या होते है ? कैसे बनते हैं ? हम जानते है चुनाव जनता को मौका देते हैं अपने अनुसार नीतियाँ राजनीतिक पार्टियों से लागू करवाने का । इसप्रकार जनता के हित व मुद्दों में स्वतः समानता स्थापित हो जाती है । यह समानता उन्हें लामबंद कर देती हैं । और चुनाव के आने तक एक वोट केवल एक वोट न होकर वोट बैंक में तब्दील हो चुकता है । स्थानीय स्तर व कुछेक विधानसभा को छोड़ दे तो लगभग हर चुनाव वोट बैंक पर निर्भर करता हैं । कुछ वोट बैंक वर्ग आधारित, जाति आधारित, धर्म आधारित आदि होते हैं । दलित वोट बैंक, ब्राह्मण वोट बैंक जाति आधारित वोट बैंक के उदाहरण है जबकि किसान वोट बैंक वर्ग आधारित वोट बैंक का उदाहरण है । वोट बैंक के फायदे भी है और नुकसान भी है ।
वोट बैंक कैसे काम करते है ? एक उदाहरण लेकर इस बात को और स्पष्ट करते हैं । जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश की आबादी का लगभग 8% जनजाति व 16% दलित है । चूंकि 1931 के बाद 2011 में जाकर जाति आधारित जनगणना हुई और उसके आंकड़े सरकार ने साझा नहीं किये है । लेकिन तब पर भी ओबीसी जनसंख्या का प्रतिशत कम से कम 52% से ज्यादा है । ऐसे में कुल आबादी का 25% या उससे भी कम सवर्ण आबादी है ।
25% आबादी का देश भर में वितरण भी असमान है । इसलिए सवर्ण किसी भी लोकसभा सीट में निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर सकते हैं । अपवाद हो सकते हैं लेकिन आमतौर पर यह मुश्किल है ।
बात को आगे बढ़ाया जाए तो एक विधानसभा क्षेत्र के मामले में भी सवर्ण निर्णायक भूमिका तभी अदा करते है जबकि या तो जनजाति या दलित वोट या ओबीसी वोट का कुछ हिस्सा उनके साथ वोट करें ।
लेकिन पंचायत स्तर पर सवर्ण वोट बैंक हो सकता है । आज भी ग्रामीण भारत जाति के आधार पर बसा है । ऐसे में संभव है कि एक गांव केवल सवर्ण जाति की बहुसंख्या का हो ।
अब बात आती है कि जबकि सवर्ण आबादी बड़े स्तर पर चुनाव में अपने मुद्दों को नहीं उठा सकती है तो क्या उसे वोट करना चाहिए ? ज्यादातर मामलों में यदि सवर्ण जाति आधारित मुद्दे उठाएंगे तो को एक वोट बैंक के रूप में वे असफल सिद्ध होंगे इसलिए जाति के आधार पर सवर्ण वोट बैंक अकेले अक्षम है । जबकि वे इसलिए लामबंद हो कि उन्हें अपनी जाति आधारित मुद्दों संबंधी नीतियाँ लागू करवानी है । इसका बहु प्रचलित उदाहरण है आरक्षण व्यवस्था को हटाना । सवर्ण वोट बैंक आरक्षण व्यवस्था को हटाने के मुद्दे पर लामबंद हो सकता है लेकिन उसके वोट करने से फर्क नहीं पड़ेगा ।
इसलिए सवर्ण स्वयं के जाति आधारित मसलों के लिए वोट बैंक नहीं है । इसप्रकार सवर्ण वोट बैंक कोई चीज नहीं है । सवर्ण वोट बैंक और विभाजित होकर ब्राह्मण वोट बैंक में टूटता है और कई अन्य मुद्दों के लिए ओबीसी, जनजाति के साथ मिलकर एक वोट बैंक का निर्माण करता है ।
अतः पूरी चर्चा का निष्कर्ष यह है कि सवर्ण अपवाद की स्थिति में पंचायत स्तर के चुनाव में वोट कर सकते है लेकिन विधानसभा व लोकसभा के स्तर पर उनके मत का मूल्य नगण्य है ।
एक सवर्ण वोट किसान वोट बैंक, क्षेत्रीय आधार पर बने वोट बैंक का हिस्सा बनकर वोट करता हैं । वह न जानते हुए भी एक वोट बैंक का हिस्सा बन जाता है क्योंकि अकेले उसके मत की कोई कीमत नहीं होती है ।
इसप्रकार जो आबादी जिस क्षेत्र में अल्पसंख्या में रहती है उसका उस निर्वाचन क्षेत्र में स्वयं के मुद्दे पर वोट न करके उसका वोटअन्य मुद्दों के आधार पर बने वोट बैंक का हिस्सा माना जाता है ।
इससे लाभ वोट बैंक बाने वाले प्रभावशाली वर्ग को होता है जबकी कमजोर वर्ग उसके मुद्दों को उठाने के लिए सहायक का काम करता है ।